Monday, 12 June 2017

खेती.....यज्ञ या व्यापर?

जिस प्रकार पूर्व काल में ऋषि-मुनि अपनी भौतिक सुख सुविधाएं त्याग कर शहर से दूर और प्रकृति के निकट रह कर अपनी प्रिय वस्तुओ का हवन करते थे ताकि दूसरी प्रजा सुखी रहे, वर्षा अच्छी हो परिणाम स्वरुप फसल अच्छी हो, राज्य संपन्न हो, प्राकृतिक आपदाएं टले। कई यग्यो में कर्ता के प्राणों की भी आहुति देने की बात पढ़ने को मिलती है। क्या हम किसान आत्महत्या का महिमामंडन करने के लिए उसे इस ही तरह की आहुति मान सकते है? तब तो हमे किसान को भी ऋषि मानना पड़ेगा पौराणिक काल में ऋषियों का जो आदर था वो भी किसानों को देना पड़ेगा। कई उदाहरण है शास्त्रो में जो बताते है कि समय-समय पर राजा नंगे पांव ऋषियो के दर्शन करने जाते थे जिसका एक प्रयोजन यह भी होता था कि उन् की सारी जरूरतो का ध्यान रखा जाये और अगर कोई कमी है तो बिना मांगे उपलब्ध करवाई जाए ताकि समाज के अन्नदाता को किसी के सामने हाथ ना फ़ैलाने पड़े। पर अब परिस्थिति परिणत है। परंतु अब परस्पर हाथ फ़ैलाने का रिश्ता है   शासक और कृषक के बीच, पांच साल में एक बार शासक इनके सामने और बाकि  पांच साल किसान, शासक के सामने।


पर अगर खेती व्यापार है तो दृष्टिकोण बदल जायेगा। फिर तो किसान को एक असफल व्यापारी माना जायेगा जो की खुद तो पूरे देश को खिलाता है पर खुद कुपोषित है, जो खुद तो देश की अर्थ व्यवस्था मूल है पर खुद की आर्थिक स्थिति दयनीय है, जिसके घर अच्छी पैदावार का लाभ पूरा देश उठाता है  सिवाए खुद के। कमी कंहा है, गलती में कौन है सरकार या किसान। अगर किसानों के हितों की रक्षा सरकार का उत्तरदायित्व है तो ये याद दिलाने के लिए आजादी के 70 सालो बाद किसानों को उग्र आंदोलन करने के जरूरत क्यों पड रही है क्या पिछले 7 दशकों से हम एक विफल राज्य में रह रहे है जिसमें सरकारे अपनी 60 फिसदी आबादी को दो वक़्त की रोटी और मूलभूत सुविधाऐ भी मुहैया नहीं करवा पाई।

यदि इस मुक्त बाजार प्रणाली में किसानों को अपने हित खुद सुरक्षित रखना है तो क्यों सरकार जब फल, सब्जी या खाद्यान महंगे होने लगते है तो कुछ वर्ग विशेष के तुष्टिकरण के लिए निर्यात कर दाम कम रखने में लग जाती है।  क्या सरकारी हस्तक्षेप सिर्फ शहरी गरीब और मध्यमवर्ग को लाभ पहुँचाने के लिए है।

साल दर साल किसानों की जोत छोटी और कर्ज बड़ा होता जा रहा है। छोटी जोत में ज्यादा पैदावार देने वाली फसले जैसे की प्याज, टमाटर,आलू एकदम से प्रचलित होते जा रही है और परिणाम स्वरुप इनके भाव कम से भी कम। बुद्धिजीवियों द्वारा इस कुचक्र से निकलने का एक मात्र उपाय सुझाया गया है कि जमीनी तौर पर मूल्य संवर्धन इकाईया लगायी जाये जिससे किसान खुद अपने उत्पाद को प्रसंस्करण कर उचित लाभ कमा सके और साथ ही साथ मौसमी बेरोजगारी से भी निजाद पा सके।

अब सरकार को ये निश्चित करना है कि खेती को व्यापार मान कर किसानों को अपना मुनाफा कमाने में स्वसामर्थ करना है या यज्ञ मान किसानों को अपने प्राणो की आहुति देने के लिए छोड़ देना है?

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