भारत कहने को तो दुनिया की सबसे तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्था है पर साथ् ही
साथ दुनिया के सब से ज़्यादा गरीब , कुपोषित ,और बेरोजगार लोग भी भारत में ही बसते है । हालाकि भारत विकास के क्षेत्र में आगे बड रहा है पर हर प्रबुद्ध नागरिक यह मानता है की इस देश को अपनी गति से नहीं बल्कि उस गति से आगे बढ़ना होगा जिस की इसे ज़रूरत है।मसलन हमारे देश में आने वाले 20 साल तक हर महीने 10 लाख नए युवा रोजगार ढूंढने निकलेंगे तो जाहिर है हमारे रोजगार पैदा करने की क्षमता भी इसी हिसाब से बढ़ानी होगी । इन सब तथ्यों को देखते हुए ये स्वतःसिद्ध हो जाता है की इस देश को कड़े आर्थिक और सामाजिक सुधारो की जरुरत है, और इस के लिए हमे एक मजबूत प्रधान-मंत्री चहिये । मगर पिछले 35- 40 के राजनीतिक घटनाक्रम पर नजर डाले तो दिखता है की मतदाता ने बड़े वादे और लोक-लुभावने कामो पर ज़्यादा भरोसा दिखया है बजाय की स्थायी सुधार के। पी.वी नर्सिंघ्मराओ जिनके 1991 के आर्थिक बदलाव भारतीय इतिहास का अहम् अध्याय है और अटल बिहारी बाजपेयी जिनकी दसवी पन्च वर्षीय योजना अब तक की सब से सफल पन्च वर्षीय योजना मानी जाती है ये दोनो ही कभी वापस सत्ता में नहीं आये। सही मायने में तो सिर्फ मनमोहन सिंह ही है जो इंद्रा गांधी के बाद दो बार प्रधान मंत्री बने । 2004 मे मनमोहन सिंह जैसे विख्यात अर्थशास्त्री का प्रधानमंत्री बनना तो बड़े शुभ संकेत होते भारत के लिए अगर मतदाता ने मतदान भी उन्ही के नाम पर दिया होता ।मगर जैसा की संजय बारु की किताब उन्हें कहती है "दुर्घटनावश बने प्रधानमंत्री" और हम सब भी जानते है की वह प्रधानमंत्री कैसे बने !
साथ दुनिया के सब से ज़्यादा गरीब , कुपोषित ,और बेरोजगार लोग भी भारत में ही बसते है । हालाकि भारत विकास के क्षेत्र में आगे बड रहा है पर हर प्रबुद्ध नागरिक यह मानता है की इस देश को अपनी गति से नहीं बल्कि उस गति से आगे बढ़ना होगा जिस की इसे ज़रूरत है।मसलन हमारे देश में आने वाले 20 साल तक हर महीने 10 लाख नए युवा रोजगार ढूंढने निकलेंगे तो जाहिर है हमारे रोजगार पैदा करने की क्षमता भी इसी हिसाब से बढ़ानी होगी । इन सब तथ्यों को देखते हुए ये स्वतःसिद्ध हो जाता है की इस देश को कड़े आर्थिक और सामाजिक सुधारो की जरुरत है, और इस के लिए हमे एक मजबूत प्रधान-मंत्री चहिये । मगर पिछले 35- 40 के राजनीतिक घटनाक्रम पर नजर डाले तो दिखता है की मतदाता ने बड़े वादे और लोक-लुभावने कामो पर ज़्यादा भरोसा दिखया है बजाय की स्थायी सुधार के। पी.वी नर्सिंघ्मराओ जिनके 1991 के आर्थिक बदलाव भारतीय इतिहास का अहम् अध्याय है और अटल बिहारी बाजपेयी जिनकी दसवी पन्च वर्षीय योजना अब तक की सब से सफल पन्च वर्षीय योजना मानी जाती है ये दोनो ही कभी वापस सत्ता में नहीं आये। सही मायने में तो सिर्फ मनमोहन सिंह ही है जो इंद्रा गांधी के बाद दो बार प्रधान मंत्री बने । 2004 मे मनमोहन सिंह जैसे विख्यात अर्थशास्त्री का प्रधानमंत्री बनना तो बड़े शुभ संकेत होते भारत के लिए अगर मतदाता ने मतदान भी उन्ही के नाम पर दिया होता ।मगर जैसा की संजय बारु की किताब उन्हें कहती है "दुर्घटनावश बने प्रधानमंत्री" और हम सब भी जानते है की वह प्रधानमंत्री कैसे बने !
2009 में भी उन्हें वोट मिलने का कारण यह तो नहीं था की वह कोई ऐसा बड़ा आर्थिक सुधार लाये थे विपरीत इस के , मनरेगा (जिस के कंधो पे सवार होकर वो दूसरी बार आये थे) के बारे में सभी स्वतंत्र अर्थशास्त्रियों ने भी कई शंकाए ज़ाहिर की थी जो की बाद में सच साबित हुई।2010-2013 में जो खाद्य पदार्थ अभूतपूर्व ढंग से मेंहगे हुए उस का जिम्मेदार मनरेगा को ठहराया गया । 2013 में चुनावी माहोल में लाया गया खाद्य सुरक्षा विधेयक भी नीतिकारों के शंका के घेरे में है । जिसका वजन सरकारी खजाने पर सवा लाख करोड़ का है और देश के 70 % लोग इस के लाभार्थी बताये जा रहे है ।इस का उद्देश्य देश के 70% लोगो को सस्ता अनाज देना है पर जो दो वक़्त की रोटी कमाने में असमर्थ है , पर इन् की संख्या तो 17-21% है और ऐसे लोगो के लिए तो पहले से ही कई योजनाये मौजूद थी ।वो बात अलग है की वह सभी भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गयी और भूखे लोग अब भी भूखे ही है । बाकि 50 % यानि मध्यम वर्गीय तो बिलकुल किसी सरकार से 2 रु किलो गेहू लेकर खुश होने वाला नहीं था जो की उस ने 2014 चुनाव में व्यक्त भी किया। इस तरह की योजनाये गरीब को हमेशा गरीब रखने और भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने वाली होती है। फिर इसे कोई चुनावी हथकण्डा कहे तो भी क्या गलत है ।बजाय इस के ये सवा लाख करोड़ हर साल कंही ऐसी जगह खर्च किये जाते की बेहतर रोजगार उत्पन्न होता ,निम्न मध्यम वर्गीय लोगो को नया व्यापार खोलने के लिए आसानी से ऋण मिल सकता । हिसाब लगा के देखा जाये तो 1 साल के सवा लाख करोड़ याने 5 साल के 6.25 लाख करोड़ रुपय जिस से देश के हर युवा को 2-2 लाख तक की सहायता आसानी से दी जा सकती थी या फिर देश के 22% गरीबो को सहारा दे कर देश की गरीबी मिटाई जा सकती थी ( but practically it is not possible in our country ,check my article on food security for more information ).
2014 उम्मीद और उत्साह की लहार पर सवार हो कर नरेंद्र मोदी नेतृत्व वाली NDA सरकार आयी जिसका प्रचार इसी तर्ज पर किया गया की यह सरकार विकशोन्मुख सरकार होगी । पर मोदी के पास देश में विकास करने से ज़्यादा महत्वपूर्ण लक्ष्य है अपनी धुर विरोधी पार्टी कांग्रेस को जड़ से ख़त्म करना ।ताकि 2019 के चुनाव में मतदाताओ के पास भाजापा के अलावा कोई बड़ा विकल्प न बचे ।इसी वजह से मोदी अब तक कोई भी कडा कदम उठाने से बच रहे है ,और अगर कोई ऐसा फैसला लेते भी है कसी प्रत्याशित विधानसभा चुनाव को देख कर अपने कदम फिर रोक लेते है । जैसे की सत्ता में आते ही हरयाणा और महाराष्ट्र् चुनाव फिर दिल्ली और अब बिहार । मोदी भी वही कर रहे है जो उन के पूर्ववर्ती प्रधानमंत्रियो ने किया फ्री गाड़ियां, टी.वी , कपडे बाँटे जा रहे है वे भली भाँति जानते है की बिहार में आर्थिक अनुदान की रेवड़ी खूब चलेगी खासकर खाद्य और उर्वरक क्यों बिहार में निम्न माध्यम वर्ग और किसान ज़्यादा है ।
बिहार के बाद बड़ी चुनोती 2016 में पश्चिम बंगाल में आएगी वँहा फिर देश का सबसे महत्वपूर्ण तंत्र देश को छोड़ के वँहा के चुनाव के राणनिति बनाने लग जायेगा ।उस के बाद 2017 में उ. प्र की बारी आजाएगी फिर 2018 में राजस्थान और मध्यप्रदेश और 2019 में लोकसभा चुनाव आ ही जायेगे फिर आखिर कार देश का प्रधानमंत्री अपने प्रधानमंत्री होने का फ़र्ज़ कब निभाएगा क्यों की पूरा कार्यकाल तो भाजपा की देश में जड़े मजबूत करने में निकल जायेगा । और फिर अंतिम समय में सरकारी खजाने अर्थात करदाताओ के पैसे से कोई बड़ी योजना लायी जायेगी और भी कई बड़े-बड़े वादे किये जायेंगे फिर से सत्ता हासिल करने के लिए ,सरकारी खजाने की कीमत पर
जैसा की अब तक होता आया है । पर दुःख की बात यह है की यह अनेतिक चुनावी फार्मूला देश में हिट भी रहा है ।पर इन सब बातो के बीच देश के लिए सोचने वाले प्रधानमंत्री की कमी वाली बात धरी रह गयी ।पर उस पर बात करने जैसा कुछ है भी नहीं क्यों की जो भी सत्ता पर काबिज होगा वो भी किसी न किसी पार्टी का नेता होगा फिर देश का प्रधानमंत्री । अर्थात हमारा वर्त्तमान तंत्र भले ही अच्छे राजनीतज्ञ बना रहा हो पर अब वक़्त आ गया है की कोई नायक सत्ता संभाले ।
देश का कोई PM फ़ेडरल चुनाव के कारण अपने PM होने का फ़र्ज़ भूल जाए, फिर उस PM को PM ना बोल के ऐक्सिडेंटली मनमोहन या पार्टी प्रेज़िडेंट ही बोला जाएगा। बाक़ी आपकी भाजपा प्रेम ४ साल तक सत्ता के समर्थन में रहे इसकी गुंजाइश भरपूर है ।
ReplyDeleteजिक्र है की लोगो ने मनमोहन सिंह को वोट नहीं दिए । पर मोदी को वोट मोदी क नाम पर ही मिले है
ReplyDeleteबाकि एक्सीडेंटल वाली बात तो संजय बारु की है ....।।..।
मुझे लगता है पंरंपरागत वोटो को छोड़ दें तो १७ मे से ४-५ करोड़ ने ही राकस्टार मोदी के नाम पर वोट दिया बाकि तो लोकपाल वाली आंदोलन कि उपज थी जो पहले २००४ में मनमोहन के साथ थी। लेकिन मेरा सवाल यह है कि क्या अब मोदी की उर्जा राज्यों मे बीजेपी कि सरकार बनाने मे लगनी चाहिये या मनमोहन से बेहतर काम करके दिखाना चाहिये।
Delete2004 के पहले तो मनमोहन खुद अपने साथ नहीं थे अपने तथ्यों को पुनः जाँच ले
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